बीमारियाँ लिखवाती हैं; बदन की नहीं, भावनाओं की। हरारतें हैं ये सब, कविताओं के हिजाब में। इन पन्नो में दशकों का बलगम है, नज़रियों का एक्सरे है, अल्फ़ाज़ों की चीत्कार है, इश्क़-मोहब्बत की उबकाई है, और अंतर्द्वंद की ऐंठन। “क़लम को ज़ुख़ाम” वह ज्वर है जो सबको होना चाहिये, आजीवन. इसकी तपिश, आत्मविश्वास देती है, रास्ते खुलवाती है, और ज़ुबान भी। ज़िंदगी की पैथोलॉजी हर शख़्स की जाँच करती है, इन कविताओं और जुमलों में मेरे क्षणों की रिर्पोट है। उम्मीद है, मेरी क़लम सा ज़ुख़ाम आपकी क़लम को भी लगेगा, और किसी दिन हम साथ बैठ एक दूसरे के मर्ज़ का हिसाब लेंगे, तसल्ली बांधेंगे। किसी दिन, ज़रूर।